इंतेहां कुछ भी नहीं आदत है आदमी की
होती है होती रहेगी मुखालफत आदमी की
गुनाह फरेब लालच कुफ्र भी है शामिल
फिर किस काम की इबादत आदमी की
खुद के मुफात के लिये अपना बना लिया
बस इतनी सी बची है शराफत आदमी की
कभी कुछ न दिया और उम्मीद पाने की
समझदारी नहीं हिमाकत है आदमी की
आदम से था रिश्ता हैवान कैसे हो गया
किस तरह लिखेंगे रिवायत आदमी की
फिदा चेहरे पे हुआ भूख जिस्म की निकली
ये मोहब्बत और यही इनायत है आदमी की
शायर – बाबू कुरैशी
#updivine #updivineyourvibes
“ढूंढ़ने से तो बशर को खुदा भी मिलता है
खुदा अगर ढूंढे तो इंसान कहाँ मिलता है।”
Beautiful poem 🙂
एक मुद्दत से मुझे खुद की तलाश है
जबकि मेरा पता मेरे ही पास है
हालात ए ज़िंदगी का मैं ही गुनाहगार नहीं
जिसने दिया है दर्द कोई अपना खास है
कल गया था घर उसके शिकवों के वास्ते
मुस्कुराकर कहा मुझे बहुत एहसास है
उन्हें सिर्फ एहसास और मैं दुनिया हार गया
जनाब ये ज़िंदगी है मेरी क्या कोई जुआ ताश है
हारकर थककर यूं ही नहीं बैठ गया ज़िंदगी से
लोग समझते हैं कमज़ोर हूं और तबीयत नासाज़ है
आपने कहा तलाश करने से खुदा भी मिल जाता है
कई बार पुकारा फरिश्तों ने कहा आसमां क्या इतना पास है
शायर एन्ड नॉविल राइटर – बाबू कुरैशी
Thank you so much Ritika ji for your like and comment.
I tried to translate your poem for myself. Except for language difficulties, I consider your poem good and remarkable. 👌😊