खत्म समय ये कली रात का क्यों होता नई?
खौफ है इतना दिल मै क्यों? रातों को सोता नई,
खेल है जिस्मों का जल्लाद है बाज़ार मै
देख ऐसी बर्बरता फिर क्यों मौला तू रोता नई?
सोच उस मां का जिसकी बेटी ना वापस अाई
सुन खबर उसकी अब सांसे भी ना चल पाई,
क्या खबर थी बेटी को देखा आखरी बार
रात के अंधेरे में इंसान घुमे बन कसाई।
अंधेरा काली रात नहीं सोचा ऐसा गुनाह होगा
चीखती रही चिल्लाती किसी ने ना सुना होगा,
धुआं उठा था शरीर उसका वाहा जल रहा था
मांगी होगी मन्नत उसने क्या मौला तू जमा होगा?
हिन्दू – मुस्लिम, उंच – नीच की बातों पे सब टीका है
इंसानियत की बातें करते ना कोई भी दिखा है,
कुर्सियों पे बैठ के मुंह चलाना आसान
लेकिन कुर्सियों को छोड़ इनको कुछ करते ना देखा है।
क्या फायदा है हाथों मै मोमबत्तियां जलाने का
ज़ुबान पे लगे है ताले, आंख बंद ज़माने का,
हर छोटी – छोटी बात पे जो नारी मोर्चे निकले है
वो नारी मोर्चे अब कहा? ये बात है बताने का।
किसी की मौत पे ना खेलो गंदी राजनीति
खुशनसीब हो तुम, ना ये तुम्हारी आपबीती,
24 घंटे के अंदर देश ने 6 बेटी खोई है
अपनी सोच को बढ़ाओ जिससे ना कोई कली रात बीते।
Your poem is more than good. It touched me profoundly. I’ve just now read it the third time and, I was hesitating to leave you a comment at all since, you wrote about a very sensitive issue. I have lots of questions and much more notions in connection your subject. Good poem, if only it had a better topic or if only it wasn’t true…
I wrote this on the basis of true event.